बेटे को पिता की चिट्ठी

लेखक हरीश चन्द्र बर्णवाल के पुत्र तत्व बर्णवाल एक बार काफी बीमार हो गए थे। उस दौरान वो 25 दिनों तक अस्पताल में 12 दिनों तक वेंटिलेटर पर रहे। वेंटिलेटर पर जब पुत्र का नौवां दिन था, तब लेखक ने अपने पुत्र के लिए एक मार्मिक कविता लिखी थी। वो कविता इस प्रकार थी –

उठो श्रीशु उठो
उठो श्रीशु उठो

उठो श्रीशु उठो
कि सुबह होने को बेकरार है
कि सूरज उगने को छटपटा रहा है
कि रोशनी ने अंधेरे की आंचल ओढ़ रखी है

उठो श्रीशु उठो
कि कई दिनों से कोयल की कूक सुनाई नहीं पड़ी है
कि कई दिनों से पक्षियों की चहचहाहट बंद है
कि कई दिनों से भौंरों की कलरव सुस्त है

उठो श्रीशु उठो
कि कई दिनों से पत्तियों पर ओस की बूंदें नहीं जमी हैं
कि कई दिनों से वृक्षों ने आक्सीजन देना बंद कर दिया है
कि कई दिनों से हरियाली ने अपना श्रृंगार नहीं किया है

उठो श्रीशु उठो
कि कई दिनों से तुम्हारी साइकिल खराब नहीं हुई है
कि तुम्हारे दोस्त रेसिंग में हारने को तैयार हो गए हैं
कि खेल का मैदान तुम्हारे इंतज़ार में सूना पड़ा है

उठो श्रीशु उठो
कि आज तुम्हारी मैडम तुम्हें पढ़ाने घर ही चली आई हैं
कि फादर अस्वस्थ होने के बाद भी सिर्फ तुम्हारे स्वास्थ्य की कामना कर रहे हैं
कि आज पूरे स्कूल ने एक साथ तुम्हारे नाम को पुकारा है

उठो श्रीशु उठो
कि पुस्तक की वीरान तस्वीर पर सारे रंग उड़ेलने से मम्मी नहीं रोकेगी
कि क्विज की डेट स्कूल में तुम्हारे याद करने के बाद तय होगी
कि तुम्हारा गिटार अब बेसुरी आवाज निकाल रहा है

उठो श्रीशु उठो
कि छोटा भाई श्रीनु अब तुम्हें सारे खिलौने देने को तैयार है
कि अब वह हर फोन काल में भैया-भैया पुकारता है
कि तुम्हारे दोस्तों के चेहरे पर अब वह तुम्हारा अक्स ढूंढ़ता है

उठो श्रीशु उठो
कि मम्मी की घड़ी सुबह 4 बजे से ठहरी हुई है
कि सगे-संबंधियों ने जगत के कल्याण की दुआएं छोड़ दी हैं
कि बच्चों का आपस में झगड़ना बंद हो गया है

उठो श्रीशु उठो
ऐसा नहीं कि सुबह हमसे रूठ गई है
ऐसा नहीं कि प्रकृति ने अपना रूप बदल लिया है
बल्कि गलती से हमारा सूरज तुम निगल चुके हो

उठो श्रीशु उठो
उठो श्रीशु उठो

तुम्हारा पापा
हरीश चंद्र बर्णवाल

 

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