
हिन्दी कहानियों की एक बड़ी लम्बी और समृद्ध परम्परा रही है, लेकिन इस परम्परा में तूफान जैसी स्थिति कभी-कभार ही पैदा हुई है। दशकों में ऐसा हुआ जब कहानियों की पूरी लीक ही बदल गयी हो । पुराने उदाहरणों में न जाएँ तो हरीश चन्द्र बर्णवाल की पुस्तक ‘सच कहता हूँ’ की प्रत्येक कहानियाँ व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को झकझोर कर सोचने-विचारने पर विवश करती हैं। आखिर क्यों एक छोटा बच्चा बलात्कार की इच्छा जताता है ? क्यों एक शख्स ट्रेन हादसे में इनसानों के मरने पर खुश होता है ? कैसे एक पत्रकार की सफलता या कहें संवेदनशीलता पोप के मरने से जुड़ जाती है ? क्यों एक इंसान को तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के चेहरे लुटेरे जैसे नज़र आने लगते हैं । ‘सच कहता हूँ’ पुस्तक की हर कहानी यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी है । अगर कल्पना की दुनिया में हिचकोले लें तो हर कहानी एक-एक युग जीने सरीखी है । चाहे वो अन्धे बच्चों पर लिखी गयी कहानी ‘यही मुंबई है’ हो या फिर जातिवाद पर प्रहार करती हुई ‘अंग्रेज ब्राह्मण और दलित’ । पुस्तक में कहानियों का बेजोड़ संग्रह है । चाहे वह बच्चों की बदलती मानसिकता पर सवाल खड़ा करती है । और इसका कारण समाज से पूछती है । नेत्रहीन बच्चों का मायानगरी मुम्बई में अनुभव हो या फिर अपने बेटे की गम्भीर बीमारी के दौरान अस्पताल के कभी न याद करने लायक हालात हों। यही नहीं लघुकथाओं में टेलीविजन मीडिया की अंदरूनी गन्दगी को भी लेखक ने स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है।
हरीश चन्द्र बर्णवाल की ये पुस्तक वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। किताब के बारे में और जानकारी के लिए क्लिक करें
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